वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया अभी अभी तो हम इक दूसरे से बिछड़े थे तुम्हारे बा'द चमन पर जब इक नज़र डाली कली कली में ख़िज़ाँ के चराग़ जलते थे तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे शब-ए-ख़मोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी पहाड़ गूँजते थे दश्त सनसनाते थे वो एक बार मिरे जिन को था हयात से प्यार जो ज़िंदगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे नए ख़याल अब आते हैं ढल के आहन में हमारे दिल में कभी खेत लहलहाते थे ये इर्तिक़ा का चलन है कि हर ज़माने में पुराने लोग नए आदमी से डरते थे 'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे