वो नक़ाब-ए-रुख़ उठा कर कभी बाम तक न पहुँचे वो करम भी क्या करम है जो अवाम तक न पहुँचे ये शबाब इक बला है मीरी तुझ से इल्तिजा है दिल-ए-ज़ार कोई तोहमत मिरे नाम तक न पहुँचे मिरी हर ख़ुशी है ऐ दिल मिरे ग़म की इक निशानी वो सहर सहर नहीं है कि जो शाम तक न पहुँचे वो तुयूर ख़ाक समझे पर-ओ-बाल की हक़ीक़त जो निकल कर आशियाँ से कभी दाम तक न पहुँचे तिरे पासबाँ को मुझ से कोई ख़ास है अदावत मैं पयाम तुझ को भेजूँ तो सलाम तक न पहुँचे तुझे मुर्ग़-ए-दिल मुबारक ये तलाश-ए-दाना लेकिन ये तलाश रफ़्ता रफ़्ता कहीं दाम तक न पहुँचे रहे क्यों न उन से शिकवा मुझे कम-निगाहियों का मिरा ख़त पढ़ा भी लेकिन मिरे नाम तक न पहुँचे ये है राज़-ए-इश्क़ 'साहिर' इसे क्यों छुपा रहे हो ये वो बात ही नहीं है जो अवाम तक न पहुँचे