वो रब्त-ए-बाहमी नहीं वो प्यार भी नहीं पहली सी वो निगाह-ए-तरहदार भी नहीं अब हाल दिल का लाएक़-ए-इज़हार भी नहीं जीते हैं और जीने के आसार भी नहीं हर-हर नफ़स में ज़ीस्त के है आरज़ू-ए-शौक़ कम दिलकशी में इश्क़ का आज़ार भी नहीं थी जान इक अमानत-ए-यार उस को सौंप दी अब ज़िंदगी के दोष पे ये बार भी नहीं इस दौर की अजीब है तंज़ीम दोस्तो फ़नकार वो बना है जो फ़नकार भी नहीं दौर-ए-हवस में कोई भी पुरसान-ए-ग़म नहीं अपनों से क्या शिकायत-ए-अग़्यार भी नहीं दुनिया में एक तेरा सहारा है ऐ ख़ुदा तन्हा हूँ कोई यार-ओ-मदद-गार भी नहीं हक़ बात 'दर्द' अहल-ए-ख़िरद को न हो क़ुबूल 'ग़ालिब' के लोग इतने तरफ़-दार भी नहीं