वो रब्त-ए-बाहमी वो ए'तिबार प्यार न था जिसे मैं यूँही समझ बैठा प्यार प्यार न था महीन लफ़्ज़ों की सरगोशियाँ थीं वो क्या थीं वो मुझ को सोचना दीवाना-वार प्यार न था वो गीली गीली हवा और धुला धुला मौसम बरसना आँखों का वो ज़ार-ज़ार प्यार न था तुम अपनी पिछली मोहब्बत का ग़म भुलाने लगीं मुझे भी लगने लगा पहला प्यार प्यार न था लरज़ते लब पे जो इक़रार था वो और था कुछ तुम्हारी आँखों में था इंतिज़ार प्यार न था