वो रौशनी वो महक मेरे नाम ही न हुई वो सुब्ह फिर नहीं आई वो शाम ही न हुई हज़ार रंग बिछे थे हज़ार क़ामत थे मगर ज़मीन पे फ़स्ल-ए-क़ियाम ही न हुई अभी तो तौक़ है गर्दन में पाँव में ज़ंजीर हिकायत-ए-ग़म-ए-दौराँ तमाम ही न हुई मिरी सदा पे तो घर से कोई नहीं निकला अजीब लोग थे ये रस्म आम ही न हुई हमीं ने सच के एवज़ दार चूम ली 'सरमद' फिर इस के बाद ख़मोशी मुदाम ही न हुई