ये और बात मैं ग़म से निढाल भी तो नहीं उसे गँवा के तबीअत बहाल भी तो नहीं सुलगती सोचती उजड़ी उदास आँखों में तुम्हारे क़ुर्ब की रौशन मिसाल भी तो नहीं जब इतने दिल-ज़दा ठहरे तो मान भी जाओ कि उस के वा'दा-ए-फ़र्दा का हाल भी तो नहीं वो ग़ैर की तरह मिलता है रोज़ क्या कीजे फ़िराक़ भी तो नहीं है विसाल भी तो नहीं यही है ख़ू-ए-तग़ाफ़ुल तो उम्र भर न मिलो ये सिर्फ़ मेरी अना का सवाल भी तो नहीं उठी अब आशिक़ी या लोग हो गए पत्थर तुम्हारे हुस्न पे अब तक ज़वाल भी तो नहीं बुझे घरों का धुआँ सा है शहर में 'सरमद' ये और कुछ है सहर का जमाल भी तो नहीं