वो शख़्स आज मुझ को एक आइना दिखा गया तलब के भी उसूल हैं यही मुझे बता गया ये क़ाएदे की बात थी तलब मिरी भी शाद हो ज़रा सा था मुतालबा वो बे-नुक़त सुना गया शबान-ए-हिज्र में मिरा जो हम-नफ़स बना रहा विसाल-रुत जब आ गई वो मेरा आश्ना गया अरब के रेगज़ार में छुपी हुई बहार थी उठा जब एक शख़्स तो गुलाब सब खिला गया नया नया सा अह्द है नई नई रिवायतें किताब में वो पंखुड़ी का सिलसिला चला गया मैं एक धुँदले अक्स को लपक रहा था ख़्वाब में वो बचपने सा लग रहा था जो गया गया गया वो दर्द-आश्ना मिरा वो हम-नफ़स वो हम-नशीं ज़रा सी बात पर मुझे ही अजनबी बना गया जनाब-ए-'दानिश-असरी’ आप सोचना ही छोड़ दें कहीं रुका नहीं है वो ब-हद्द-ए-इंतिहा गया