ये अलग बात कि पेशानी पे बल आएगा ग़ौर करते रहो कुछ हल भी निकल आएगा बीज भी डाल दे उम्मीद-ए-समर भी तज दे जब तिरी नस्ल जवाँ होगी तो फल आएगा मस्लहत ओढ़ के चुप-चाप तमाशा बन जा जो भी आएगा मुख़ालिफ़ तिरे हल आएगा एक क़ानून-ए-मुकाफ़ात-ए-अमल है ज़ालिम आज जो करता है तू सामने कल आएगा उम्र गुज़री है कभी दीद की लज़्ज़त मिल जाए जाने कब मेरी निगाहों में वो पल आएगा 'दानिशा' बज़्म में उन की तो ग़ज़ल झूम के पढ़ उन की जानिब से भी कुछ रद्द-ए-अमल आएगा