याद आते हैं जब अहबाब पुराने मेरे कर्ब-ए-एहसास से झुक जाते हैं शाने मेरे मिरी तक़दीर में शायद कोई ता'बीर नहीं रह गए यूँ ही धरे ख़्वाब सुहाने मेरे विर्द करता रहा मैं हर्फ़-ए-सदाक़त जिन पर मो'तबर हैं वही तस्बीह के दाने मेरे मिरी शोहरत तो है अहबाब की मम्नून-ए-करम ख़ूब बढ़ बढ़ के सुनाते हैं फ़साने मेरे बज़्म-ए-अग़्यार का माहौल भी मानूस लगा हर नज़र लोग मिले जाने बेगाने मेरे सब्र की आँच से पत्थर भी पिघल जाता है बुत बने आज वो बैठे हैं सिरहाने मेरे मुतमइन हूँ मैं 'जमील' अपनी शकेबाई पर इस ज़माने में भी हैं होश ठिकाने मेरे