याद और ग़म की रिवायात से निकला हुआ है दिल जो इस वक़्त मिरे हात से निकला हुआ है मुड़ के देखे भी तो पत्थर नहीं होता कोई जाने क्या शहर-ए-तिलिस्मात से निकला हुआ है रात ये कौन सा मेहमान मिरे घर आया सारा घर हल्क़ा-ए-आफ़ात से निकला हुआ है हुज्रा-ए-हिज्र में बैठा है जो मज्ज़ूब-सिफ़त अर्सा-ए-शोर-ए-मुनाजात से निकला हुआ है लश्करी गाँव पे शब-ख़ून नहीं मारेंगे हौसला गश्त पे कल रात से निकला हुआ है मानते कब हैं भला ऊँचे मकानों वाले शहर का शहर मज़ाफ़ात से निकला हुआ है ज़र का बंदा हो कि महरूमी का मारा हुआ शख़्स जिस को देखो वही औक़ात से निकला हुआ है