याद उस मह-ए-ख़ूबी की जब हिज्र की रात आई आँखों में मिरी उस दम अश्कों की बरात आई दिल इश्क़ की लज़्ज़त से आगाह हुआ जब से जैसे तन-ए-मुर्दा में इक ताज़ा हयात आई था दिल में इरादा तो शिकवों का शिकायत का जब सामने वो आए होंटों पे न बात आई तल्ख़ी-ए-कलाम उस की आशिक़ की समाअ'त तक शीरीनी-ओ-लज़्ज़त में मानिंद-ए-सबात आई इस ख़ाक में मिलने को ख़ुद ख़ाक हुआ आख़िर ख़ाक उस के क़दम की जब दीवाने के हाथ आई इस ताबिश-ए-जल्वा से नज़रें जो हुईं ख़ीरा फिर सामने आँखों के पहली सी क़नात आई ख़ल्वत है शब-ए-ग़म की और मश्क़-ए-तसव्वुर है तुम से गले मिलने की फिर आज ये रात आई माइल-ब-करम उस को पाया जो 'फ़ज़ा' इक दिन जो दिल में थी मुद्दत से होंटों पे वो बात आई