याद-ए-ख़ुदा कर बंदे यूँ नाहक़ उम्र कूँ खोना क्या हक़ चाहा सूई कुछ होगा उन लोगों सीं होना क्या कोई शाह कुइ गदा कहावे जैसा जिस का बना नसीब जो कुछ हुआ तिसी पे ख़ुश रह नाँ इन लोगों सें होना क्या सैर सफ़र कर देख तमाशा क़ुदरत का सब आलम का घर कूँ झोंक भाड़ के भीतर आशिक़ हो कर कोना क्या जान ममोला जगत पियारा जिन देखा सो ठिठक रहा चंचल निपट आचीले नैनाँ तन के आगे मृग छूना क्या दाग़ के हैकल अनझुवाँ की माला ज़ीनत-ए-इश्क़ की यही निशानी फिरें मस्त जो बिरह के तन कूँ मोती लाल पिरोना क्या आज 'आबरू' दिल कूँ हमारे शौक़ ने उस के मगन किया है जाग अनाड़ी देख तमाशा इश्क़ लगा तब सोना क्या