यादें तुम्हारी फेंक दूँ कैसे निकाल कर दिल के क़फ़स में रक्खी हैं मुद्दत से पाल कर मैं ठीक हूँ तो मान दलीलें सभी मिरी मैं हूँ ग़लत अगर तो आ मुझ से सवाल कर सह लेती हूँ मैं तेरी सभी बद-तमीज़ियाँ जो वक़्त साथ गुज़रा है उस का ख़याल कर क्या ख़ूब प्यार का सिला तू ने दिया मुझे बरसों के इंतिज़ार को लम्हे में टाल कर शामिल नहीं हूँ ऐसी जमाअत में आज भी हमदर्दी चाहिए जिन्हें जज़्बा उछाल कर यूँही तो पुर-असर नहीं अशआ'र हो गए लिक्खा है लफ़्ज़-ए-दर्द में थोड़ा उबाल कर होना था जो भी हो चुका अच्छा है या बुरा क्या फ़ाएदा है अब न 'तबस्सुम' मलाल कर