यादों के अम्बार लगे थे ख़ाली पैकेट भरे पड़े थे जाने कौन सा दुख हावी था जाने क्यों इतना हँसते थे उस बेज़ार गली से हो कर हम अक्सर आते जाते थे ख़्वाबों के बोसीदा मंज़र आँखों आँखों झाँक रहे थे आवाज़ों के गूँगे लश्कर रात का सीना चीर रहे थे गुल-दानों को याद नहीं अब पहले कौन से फूल सजे थे हम भी पागल थे जो तुम से अपना जी हल्का करते थे कैसी वहशत-नाक फ़ज़ा थी चाय के ख़ाली कप कहते थे मेरी इस वीरान-सरा तक कुछ साए पीछा करते थे कितनी पुरानी ख़बरें थी वो जिन को हम ताज़ा करते थे अफ़्सानों की भीड़ में खो कर हम ख़ुद को ढूँडा करते थे