याद कर वो हुस्न-ए-सब्ज़ और अँखड़ियाँ मतवालियाँ काटते हैं रो ही रो सावन की रातें कालियाँ शब तसव्वुर बाँध कर उस जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ का वाह ख़ुद-बख़ुद किस किस मज़े से हम ने छड़ियाँ खा लियाँ देखें क्या उन की लचक उस सा'अद-ए-नाज़ुक बग़ैर खींचती हैं क्यूँ हमें काँटों में गुल की डालियाँ कुछ न कुछ कर बैठता हूँ बात उस के बर-ख़िलाफ़ ता किसी सूरत वो दे झुँझला के मुझ को गालियाँ मह असीर-ए-हाला उस का देख बाला क्यूँ न हो ख़ंदा-ज़न हों महर पर जिस की जड़ाव-बालियाँ शब को जो उस का तसव्वुर बंध गया तो हम ने बस उस के मुखड़े की बलाएँ सुब्ह तक क्या क्या लियाँ वक़्त-ए-इज़हार-ए-वफ़ा महफ़िल में उस की जिस से आँख मिल गई तो बस वो सब बातें उसी पर ढालियाँ बर्ग-ए-गुल उन को कहूँ या पारा-ए-याक़ूत वाह देखियो बिन पान खाए उन लबों की लालियाँ कूचा-ए-क़ातिल को गर मुसलख़ कहूँ तो है बजा जब न तब देखो तो बहती हैं लहू की नालियाँ ख़ून-ए-दिल आँखों में भर आता है जब आती है याद वो मय-ए-गुल-रंग की भर भर के देनी प्यालियाँ ताक-झाँक उस की कहूँ क्या मैं कि तिफ़्ली में भी थीं उस के हाथों घर की दीवारों में हर सू जालियाँ काश 'जुरअत' वस्ल का दिन होवे जल्दी से नसीब हिज्र की तो खाए जाती हैं ये रातें कालियाँ