यही बुनियाद-ए-नज़्म-ए-आलम है हर मसर्रत की इंतिहा ग़म है ये मिला अर्ज़-ए-मुद्दआ का जवाब आज उन का मिज़ाज बरहम है अब न दस्त-ए-करम न वो दामन दिल परेशाँ है आँख पुर-नम है ऐ अजल मंज़िल-ए-हयात बता लोग कहते थे फ़ासला कम है किस क़दर ख़ुश-नसीब हूँ 'माहिर' मेरे दामन में दौलत-ए-ग़म है