ये ऐसा सच है नहीं जिस में कोई शक बाबा बग़ैर प्यार के है ज़ीस्त बे-नमक बाबा तलब थी जिस को बहर-गाम मंज़िल-ए-मक़्सूद गुज़र गया रह-ए-मुश्किल से बे-झिजक बाबा क़रीब-तर है मक़ाम-ए-ख़ुदा से वो फिर भी बशर से बढ़ के नहीं रिफ़अत-ए-मलक बाबा शहीद हो गए मंसूर हक़-परस्ती में चमक रहा है लहू उन का आज तक बाबा ज़माने भर की बहुत ख़ाक छान ली हम ने पहुँच सके ही नहीं दिल की राह तक बाबा