ये अलग बात कि रह रह के सदा आई है मैं ने भी अब के न सुनने की क़सम खाई है अब वो इक नाम पुकारूँ तो ज़बाँ छिल जाए हाँ वही नाम कि जो हासिल-ए-गोयाई है रात दिन यार की गलियों में पड़ा रहता हूँ इश्क़ का इश्क़ है रुस्वाई की रुस्वाई है ऐसी तन्हाई का आलम है कि दिल डूब गया और इस पर ये ग़ज़ब है तेरी याद आई है तुम अगर ख़ून भी रोओ तो भला क्या हासिल हम न कहते थे वो लड़की बड़ी हरजाई है हाए वो आँखें जो रौशन हैं तसव्वुर में मिरे हाए वो शक्ल जो ग़ज़लों में उतर आई है अब ये आलम है कि अशआ'र में ख़ूँ थूकता हूँ और वो कहते हैं फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई है इश्क़ जा निकला था फिर कू-ए-मलामत की तरफ़ अक़्ल फिर खींच के दीवाने को ले आई है हाए वो आलम-ए-सद-शौक़ उसे चूम लिया तेरा पैग़ाम जो चुपके से सबा लाई है