ये और बात हमें सूरत-ए-गुलाब लगे 'जमील' ज़ख़्म लगे और बे-हिसाब लगे तुम्हारे बा'द न तकमील हो सकी अपनी तुम्हारे बा'द अधूरे तमाम ख़्वाब लगे मैं कैसे तुझ को पुकारूँ कहाँ से लाऊँ तुझे तिरे बग़ैर अगर ज़िंदगी अज़ाब लगे मैं जितनी बार पढ़ूँ कैसे कैसे रंग भरूँ तिरा गुलाब सा चेहरा मुझे किताब लगे हर इक सवाल पे तो मुस्कुरा के रह जाए हमें तो एक ही जैसा तिरा जवाब लगे दिखाई दे कभी महताब में तिरी सूरत कभी तू दिन के उजाले में आफ़्ताब लगे 'जमील' ख़्वाब हक़ीक़त-नुमा भी होते हैं वही क़रीब-ए-रग-ए-जाँ है जो सराब लगे