ये भी क़िस्सा तमाम कर आया आज चौखट पे जान धर आया वो जो इक घर था मेरे पुरखों का मेरे हिस्से में कब वो घर आया किस तमन्ना से घर से निकला था पर मुझे रास कब सफ़र आया इम्तिहाँ ख़त्म ही नहीं होते कितने मक़्तल मैं पार कर आया चाहतें बाँटीं नफ़रतों पाईं बीज क्या बोया क्या समर आया दे के आवाज़ हर तरफ़ तुझ को हर तरफ़ से मैं बे-ख़बर आया दिल किसी ख़ौफ़ से अगर धड़का लब पे इक नाम बे-ख़तर आया तेरी निस्बत से मेरे काग़ज़ पर हर्फ़ जो आया मो'तबर आया दिल मोहल्ले से जब भी गुज़रा 'अदील' तू ही गलियों में बस नज़र आया