ये इब्तिदा है कोई इख़्तिताम थोड़ी है है शाम-ए-वस्ल बिछड़ने की शाम थोड़ी है अभी तो आए हो जाने की बात करते हो मोहब्बतों से बड़ा कोई काम थोड़ी है सभी को जाना है दुनिया को छोड़ कर इक दिन किसी बशर को भी हासिल दवाम थोड़ी है जहाँ में नफ़रतें बाँटो किसी का क़त्ल करो तुम्हारे वास्ते कुछ भी हराम थोड़ी है तिरी नज़र का ही साक़ी हूँ बस मैं दीवाना मिरी नज़र में सुराही-ओ-जाम थोड़ी है वफ़ा किसी को मयस्सर ही कब हुई है यहाँ जो हुक्मराँ है वो रावन है राम थोड़ी है बहुत से लोगों ने हम पर सितम किए हैं 'मलिक' हमारे लब पे किसी का भी नाम थोड़ी है