ज़ालिम के आगे सर को झुकाया नहीं कभी या'नी कि क़द को अपने घटाया नहीं कभी दुनिया ने मेरे दिल को दुखाया है बार बार मैं ने किसी के दिल को दुखाया नहीं कभी ग़म ये नहीं कि छोड़ के मुझ को चला गया ग़म ये है फिर वो लौट के आया नहीं कभी इक वो है मुझ को याद भी करता नहीं मगर इक मैं हूँ जिस ने उस को भुलाया नहीं कभी यूँ तो ख़ुदा ने मुझ को सभी कुछ अता किया पर जो मैं चाहता था वो पाया नहीं कभी उस की तरफ़ से दोस्तो तर्क-ए-वफ़ा के बाद मैं भी उसे निगाह में लाया नहीं कभी मैं तो वफ़ा निभाता रहा उम्र भर 'मलिक' उस ने ही अपना फ़र्ज़ निभाया नहीं कभी