ये इश्क़ है वहशत है कि आशुफ़्ता-सरी है जो कुछ है मिरे सर पे मगर ताज-वरी है आँखों में चमकती है कशिश उस के बदन की जलती है ज़मीं धूप की हर शाख़ हरी है हर चारे से बढ़ता है मिरे ज़ख़्म का रिस्ना ला'नत है अगर वक़्त की ये चारागरी है हर मौज में है उस के बदन के कई जादू वो रश्क-ए-क़मर रश्क-ए-जिनाँ रश्क-ए-परी है उम्मीद भी ख़ुद लौट के अब आ न सकेगी इस दौर के रहबर की अजब राहबरी है ठहरा ही नहीं दश्त-नवर्दी का मुसाफ़िर आशिक़ के मुक़द्दर में फ़क़त दर-ब-दरी है शर्मा के शब-ए-ग़म मिरी बाँहों में सिमट आ मैं ने ही सितारों से तेरी माँग भरी है मुझ से वो 'नदीम' अब भी तअ'ल्लुक़ न रखेंगे आदत है बुरी मेरी हर इक बात खरी है