ये जौर अहल-ए-अज़ा पर मज़ीद करते रहे सितम-शिआर मोहर्रम में ईद करते रहे हमारे दम से रहा दौर-ए-बादा-पैमाई कि अपने ख़ून से हम मय कशीद करते रहे गिला तो ये है कि जितने अमीर-ए-शहर हुए ग़रीब-ए-शहर को सब ना-उम्मीद करते रहे किया है हम ने हमेशा ही कारोबार-ए-ज़ियाँ कि सस्ता बेच के महँगा ख़रीद करते रहे किसी से शहर-ए-ख़मोशाँ में कहते सुनते क्या हम अपने आप से गुफ़्त-ओ-शुनीद करते रहे वो ज़ेर-ए-ख़ंजर-ए-क़ातिल न था गुलू कोई वो इक ख़याल था जिस को शहीद करते रहे मिरा कलाम तो क्या नाक़दीन-ए-फ़न 'मोहसिन' कलाम-ए-हक़ में भी क़ता-ओ-बुरीद करते रहे