ये जो रह रह के धुआँ उठता है आग भी होगी जहाँ उठता है दिल के पहलू में भी इक दिल है ज़रूर एक से ग़म ये कहाँ उठता है आ ही जाएँगे सियासी गिध भी शहर में अम्न-ओ-अमाँ उठता है ऐ ख़ुदा अब कहाँ जाएँगे सनम पर्दा-ए-काबा-ए-जाँ उठता है बाल चाँदी से हैं फिर भी अक्सर दिल पे इक नक़्श-ए-जवाँ उठता है तुम से क्या नाज़-ए-बहार उट्ठेगा तुम से कब बर्ग-ए-ख़िज़ाँ उठता है