ये कारोबार-ए-फ़राग़त तमाम करने को मैं सुब्ह घर से निकलता हूँ शाम करने को मैं उस की आँख में वापस वो ख़्वाब छोड़ आया जो उस ने भेजा था नींदें हराम करने को ये और बात कि मुझ को न तू समझ पाया तड़प रहा है ज़माना इमाम करने को जहाँ में कोई मयस्सर नहीं तो क्या ग़म है सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल है कलाम करने को कली को फूल बना कर गुज़र गई है बहार ठहर गया है ये नम एहतिराम करने को अभी तो शाख़ के अंदर निहाँ है अंगड़ाई मचल उठा है ये गुलशन सलाम करने को ग़ज़ाल भूल गए अपनी चौकड़ी 'ताहिर' ये कौन दश्त में उतरा ख़िराम करने को