ज़माँ के रंग में दिन-रात क्या मिलाता गया मैं अपने वक़्त से औक़ात क्या मिलाता गया बदन में आ गई जुग़राफ़ियाई तब्दीली तुम्हारे हाथ से मैं हाथ क्या मिलाता गया फिर इस के बा'द मुझे वक़्त ने क़ुबूल किया मैं दिन की शाम से इक रात क्या मिलाता गया रगों से नूर मिरी फूटने लगा ख़ुद ही लहू में ‘इज़्ज़त-ए-सादात क्या मिलाता गया फिर इस के बा'द कहानी ने ख़ुदकुशी कर ली वो दास्तान में इक मात क्या मिलाता गया वो बादशाह-ए-सुख़न सब को कर गया हैरान हमारी बात से वो बात क्या मिलाता गया फिर उस की ‘इज़्ज़त-ओ-तकरीम बज़्म ने देखी ग़ज़ल के साँचे में इक ना'त क्या मिलाता गया शराब-ए-वस्ल से हर कैफ़ उठ गया 'ताहिर' हँसी-ख़ुशी तिरे सदमात क्या मिलाता गया मैं बद-हवास था 'ताहिर' तुम्ही कहो मुझ से वो ख़ाक में मिरे जज़्बात क्या मिलाता गया