ये ख़याल था कभी ख़्वाब में तुझे देखते कभी ज़िंदगी की किताब में तुझे देखते मिरे माह तुम तो हिजाब ही में रहे मगर हमें ताब थी तब-ओ-ताब में तुझे देखते कभी कोई बाबत-ए-हुस्न हम से जो पूछता तो हम अहल-ए-इश्क़ जवाब में तुझे देखते किसी और धज से बनाते तेरा मुजस्समा कभी हम जो ऐन-शबाब में तुझे देखते कभी देखते तुझे तीरगी के जमाल में कभी रौशनी के सराब में तुझे देखते