ये क्या ज़रूर हमीं को वो आज़माएगा हर आने वाला मुक़द्दर भी साथ लाएगा किसे ख़बर है कि इस तीरा-ख़ाक-दाँ के लिए है एक दिल ही तो रौशन सो डूब जाएगा खुले दरीचों से यूँ झाँकती है मायूसी कि जैसे अब कोई झोंका इधर न आएगा उदास रात की सरगोशियों के बा'द अगर सहर जो आई तो किस को यक़ीन आएगा मैं जिस के माज़ी का इक लम्हा-ए-गुरेज़ाँ हूँ ये देखना है वो कैसे मुझे भुलाएगा हज़ार ख़्वाब हैं इन ख़ुद-फ़रेब आँखों में बिछड़ के भी वो यहाँ से कहीं न जाएगा ये दिन भी आ गए अब अपने दिल पे बीती हुई मैं ख़ुद कहूँगा मुझी को यक़ीं न आएगा