ये क्या कहा कि जमाल उन का बे-हिजाब न था ये माहताब नहीं था ये आफ़्ताब न था न है वो दौर जो मजरूह-ए-इंक़लाब न था तुम्हारे हुस्न मिरे इश्क़ का जवाब न था जहान-ए-ग़म में तसव्वुर भी कामयाब न था 'शिफ़ा' हमारी क़यामत में आफ़्ताब न था ये था हिजाब-ए-फ़रेब उस का या फ़रेब-ए-हिजाब कि बे-हिजाब था वो और बे-हिजाब न था वो बरहमी से सही मुझ को देख तो लेते ख़राब था मगर इतना तो मैं ख़राब न था ख़ता मुआ'फ़ हो वो दिन भी याद हैं कि नहीं हमें हिजाब था और आप को हिजाब न था दिल-ए-शफ़क़ से लब-ए-गुल से चश्म-ए-शबनम से कहाँ कहाँ से फ़रोज़ाँ तिरा शबाब न था 'शिफ़ा' वो रोता न क्यूँकर गुलों के हँसने पर जो ग़म-नसीब कि ग़म में भी कामयाब न था