ये क्या मालूम था बरगश्ता क़िस्मत इस क़दर होगी गुलों की आरज़ू में उम्र काँटों में बसर होगी जुनूँ की इब्तिदा है अपने दीवाने को समझाओ वो आलम और होगा जब मोहब्बत होश पर होगी रह-ए-उल्फ़त में इक ऐसी भी मंज़िल आने वाली है जहाँ ग़म का असर होता न कुछ अपनी ख़बर होगी नहीं मालूम कब जान-ए-चमन जल्वा दिखाएगा ख़ुदा मालूम कब शाख़-ए-तमन्ना बार-वर होगी अभी तक तो कोई तस्कीन की सूरत नहीं निकली यूँही ऐ 'सोज़' शायद ज़िंदगी अपनी बसर होगी