ये क्या शिकवा कि वो अपना नहीं है मोहब्बत ख़ून का रिश्ता नहीं है जो मैं ने कह दिया हो कर रहेगा मिरा मशरब ग़म-ए-फ़र्दा नहीं है बहुत पहले मैं उस को पढ़ चुका हूँ मेरी क़िस्मत में जो लिक्खा नहीं है घटा रहता है दिल में कुछ धुआँ सा ये बादल आज तक बरसा नहीं है जवानी जितने मुँह उतनी ही बातें मोहब्बत आज भी रुस्वा नहीं है वफ़ा में राहतें क्या ढूँडते हो वफ़ा दीवार है साया नहीं है ये बात अहल-ए-नज़र कब जानते हैं अकेला तो है दिल तन्हा नहीं है सही अपने न बन पाए किसी के कोई अपना न हो ऐसा नहीं है मिज़ाज-ए-यार से नालाँ हो 'अंजुम' तुम्हें शायद ग़ज़ल कहना नहीं है