ये न सोचो कि थी आपस में मोहब्बत कैसी अब वो दुश्मन है तो फिर उस से मुरव्वत कैसी सोचते सोचते ये उम्र गुज़र जाएगी आने वाली है ख़ुदा जाने मुसीबत कैसी जब चराग़ों की हिफ़ाज़त नहीं होती तुम से फिर अंधेरा है घरों में तो शिकायत कैसी छीन ले अपनी सभी ने'मतें पहले मुझ से फिर ये एहसास दिला होती है ग़ुर्बत कैसी देखना तुम कभी ख़ैरात-ए-मोहब्बत दे कर दिल में दरवेश के बढ़ जाती है इज़्ज़त कैसी जिस की लाठी में है दम भैंस भी उस की होगी ज़ुल्म क्या जाने कि होती है शराफ़त कैसी ये हुनर भी तो सिखाया है तुम्हीं ने 'शातिर' आज वो मद्द-ए-मुक़ाबिल है तो हैरत कैसी