ये नख़्ल-ए-ताक नीं मय-कश तिरे जब मस्त होते हैं चमन में एँडते अंगड़ाइयाँ ले ले के सोते हैं तिरे उश्शाक़ कार-ए-दस्त को करते हैं आँखों से गुहर आँसू के किस सिफ़्फ़त से मिज़्गाँ में पिरोते हैं सफ़ेदी कुछ जो थी सो भी मिटी हैहात रोने से सियाही नामा-ए-आमाल की क्या ख़ाक धोते हैं गए-गुज़रे नहीं हैं 'इश्क़' दीवानों से कुछ हम भी वो अपनी सुध बिसरते होवेंगे हम ख़ुद को खोते हैं