ये पीरान-ए-कलीसा-ओ-हरम ऐ वा-ए-मजबूरी सिला इन की कद-ओ-काविश का है सीनों की बे-नूरी यक़ीं पैदा कर ऐ नादाँ यक़ीं से हाथ आती है वो दरवेशी कि जिस के सामने झुकती है फ़ग़्फ़ूरी कभी हैरत कभी मस्ती कभी आह-ए-सहर-गाही बदलता है हज़ारों रंग मेरा दर्द-ए-महजूरी हद-ए-इदराक से बाहर हैं बातें इश्क़ ओ मस्ती की समझ में इस क़दर आया कि दिल की मौत है दूरी वो अपने हुस्न की मस्ती से हैं मजबूर-ए-पैदाई मिरी आँखों की बीनाई में हैं असबाब-ए-मस्तूरी कोई तक़दीर की मंतिक़ समझ सकता नहीं वर्ना न थे तुर्कान-ए-उस्मानी से कम तुर्कान-ए-तैमूरी फ़क़ीरान-ए-हरम के हाथ 'इक़बाल' आ गया क्यूँकर मयस्सर मीर ओ सुल्ताँ को नहीं शाहीन-ए-काफ़ूरी