ये सोचा ही न था हम ने कि यूँ क़द्र-ए-हुनर होगी हमारे घर की पहरे-दार तफ़तीशी ख़बर होगी ज़मीं भी तंग होती जा रही है उड़ने वालों पर भला क्या और इस से बढ़ के तौहीन-ए-बशर होगी नए मंज़र नई ख़ुशियों का मुज़्दा ले के उभरेंगे चले आओ नए अंदाज़ से ज़ौक़-ए-नज़र होगी कभी सोचा न था चुप-चाप झोंके यूँ भी गुज़रेंगे न कलियों को ख़बर होगी न फूलों को ख़बर होगी भला शब के मुसाफ़िर का भी कोई साथ देता है अब ऐसे मौसमों के साथ क्या अपनी बसर होगी हमें इन बारिशों से कोई समझौता तो करना है ये ठहराव रहा तो अपनी मंज़िल कैसे सर होगी हवाएँ ख़ुशबुओं का साथ अब देती नहीं 'नाशिर' हमारी मौसमों के साथ फिर क्यूँकर गुज़र होगी