ये सुलगती शाम पे जलती सहर देखेगा कौन और वो भी रौशनी के नाम पर देखेगा कौन कुछ न कह कर भी बहुत कुछ कह दिया हम ने मगर बोलने के शौक़ में चुप का हुनर देखेगा कौन रौशनी के वास्ते ख़ुद फूँक डाला अपना घर दीदनी है ये तमाशा भी मगर देखेगा कौन छोड़ कर रहबर मुझे अब अपनी अपनी राह लें मंज़िलों के नाम पर गर्द-ए-सफ़र देखेगा कौन सोचते हैं लौट जाएँ फिर से जंगल की तरफ़ बस्तियों में रात-दिन रक़्स-ए-शरर देखेगा कौन डूब जाना पार होने से भी है बेहतर मगर कौन 'फ़रहत' की सुनेगा डूब कर देखेगा कौन