ये तय है मैं अपने मुताबिक़ नहीं था तो क्या ज़िंदगी के मुआफ़िक़ नहीं था नई तो यहाँ एक शय भी नहीं थी मगर कुछ यहाँ हसब-ए-साबिक़ नहीं था तुम्हारी हर इक बात झूटी भी सच है मिरे दोस्तो मैं ही सादिक़ नहीं था किसी की नज़र कार-फ़रमा थी मुझ में मुक़ल्लिद रहा हूँ मुहक़क़िक़ नहीं था था शहर-ए-मोहब्बत मोहब्बत से ख़ाली वहाँ आज भी तेरा आशिक़ नहीं था फ़क़त भूक ही पंजे गाड़े खड़ी थी बहुत सारी जगहों पे राज़िक़ नहीं था 'सहर' वो सरापा मैं लिखता भी कैसे कोई लफ़्ज़ भी उस के लाएक़ नहीं था