ये तो ग़म सुब्ह-ओ-शाम का निकला इश्क़ भी कितने काम का निकला मेरे इज़हार पर वो बरहम है कुछ तो मौक़ा कलाम का निकला राह में वो मिले मगर दो पल साथ दो-चार गाम का निकला तुम बुलाते हो अब न आते हो क्या क़ुसूर इस ग़ुलाम का निकला बन गई झोंपड़ी ग़रीबों की पेड़ कट कर भी काम का निकला इश्क़ था दिल का मसअला फिर भी मसअला ये अवाम का निकला हिज्र में उस के रो लिए 'ज़ाकिर' ख़ून तो दिल में नाम का निकला