यूँ ब-मुश्किल दिल-ए-मजरूह से पैकाँ निकला मैं ये समझा कि तिरे वस्ल का अरमाँ निकला देख कर उस को दम-ए-नज़्अ' हुईं आँखें बंद जान के साथ ही दीदार का अरमाँ निकला अर्सा-ए-हश्र में पुर्सिश जो हुई उस बुत की मेरे ही दिल में वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ निकला धूम सहरा-ए-क़यामत की बहुत सुनते थे ऐ जुनूँ वो भी मिरा एक बयाबाँ निकला ख़ाक में मिल गए हम जिस की तमन्ना में 'जिगर' वो लहद पर भी सँभाले हुए दामाँ निकला