यूँ चुप है शहर जैसे कि कुछ भी हुआ न हो शायद अब इस के बा'द कोई हादिसा न हो काँपा है बर्ग बर्ग सा जो बे-सबब अभी ये जिस्म आँधियों का कोई रास्ता न हो मैं थक चुका हूँ दश्त-ए-मसाफ़त की धूप में कोई सराब राह मरी देखता न हो तुग़्यान-ए-बेवफ़ाई में डूबा रहूँ मैं काश मेरे नसीब में तुझे अब देखना न हो उभरी है ख़ुश्क पत्तों में इक चीख़ दूर तक बे-रहम कोई पाँव उन्हें रौंदता न हो शम-ए-तरफ़ जलाने से पहले ही देख लो ये दश्त-ए-ना-मुरादी-ए-दिल का दिया न हो जो शख़्स कल मिला था 'मुसव्विर' ब-तर्ज़-ए-ख़ास उस की ही शक्ल का वो कोई दूसरा न हो