यूँ भी हुई है उन की इनायत कभी कभी दिल पर गुज़र गई है क़यामत कभी कभी ऐ चश्म-ए-इल्तिफ़ात ये कैसा तिलिस्म है पाता हूँ अब जो दर्द में लज़्ज़त कभी कभी शैख़-ए-हरम हो मुफ़्ती-ए-आज़म हो या इमाम हर नेक दिल को होती है चाहत कभी कभी अल्लह रे शौक़-ए-दीद कि ख़ुद अपनी ज़ात में देखी है मैं ने आप की सूरत कभी कभी मैं ने तो मुँह से उफ़ भी नहीं की है आज तक तुम ने ज़रूर की है शिकायत कभी कभी तुम भी 'ज़िया' फ़रेब-ए-तबस्सुम में आ गए तुम को भी हो चुकी है नदामत कभी कभी