यूँ तड़पते हुए 'नौशाद' वतन से निकले जिस तरह बुलबुल-ए-बेताब चमन से निकले वाए क़िस्मत कि हुआ दिल न शगुफ़्ता शब-ए-वस्ल हाए अरमान न उस ग़ुंचा-दहन से निकले वक़्त-ए-रुख़्सत मैं कहूँ क्या जो मिरा हाल हुआ अश्क जब दीदा-ए-अहबाब-ए-वतन से निकले बाग़ में सूरत-ए-निकहत थे तिरे हम वहशी मौसम-ए-गुल इधर आया कि चमन से निकले फ़लक-ए-तफ़रक़ा-अंदाज़ ने रहने न दिया हौसले कुछ भी न यारान-ए-वतन से निकले दिल जो 'नौशाद' लगाओ तो किसी गुल-रू से जान निकले तो ग़म-ए-ग़ुंचा-दहन से निकले