ज़ाहिरन नुक़्ता हूँ इक सिमटा हुआ ग़ौर से देखो तो हूँ बिखरा हुआ इस क़दर मायूस हूँ चेहरों से मैं अपना चेहरा भी लगे बदला हुआ डर रहा हूँ हो न जाए पाश-पाश आदमी अब काँच का पुतला हुआ ज़ेहन में कुछ दिन से है कोई ख़याल एक काँटे की तरह चुभता हुआ अपने चेहरे पर भरोसा हो जिसे आइने से क्यों फिरे छुपता हुआ तीरगी का ख़ौफ़ अब तक है मुहीत ये उजाला जैसे हो माँगा हुआ जाने क्यों ये सोचता रहता हूँ मैं कल को ये सूरज अगर अंधा हुआ सोचने में अजनबी मेरे लिए देखने में वो लगे देखा हुआ हम तो ऐ 'मंज़ूर' तन्हा हो गए ख़ून पानी से भी कुछ पतला हुआ