ज़ख़्म का चेहरा सँवरता जाए है रंग ज़ख़्मों का निखरता जाए है शाम-ए-ग़म इक शख़्स से मिलने के बाद दर्द मीठा सा उभरता जाए है दफ़ पे पत्तों के थिरकता हर परिंद सूफियाना रंग भरता जाए है मज़हबों ने जब से फैलाए हैं पाँव मुल्क फ़िर्क़ों में बिखरता जाए है जुगनूओं का क़ाफ़िला देखो 'शफ़ीक़' फूल फल में नूर भरता जाए है