ज़ख़्म से रिसते लहू को सुर्ख़ पानी कर गया जब भी वो आया हक़ीक़त को कहानी कर गया आसमाँ से इक समुंदर की तरह उतरा था वो वक़्फ़ हर सहरा-नशीं के ज़िंदगानी कर गया मैं तुम्हारा आइना हूँ अक्स अपना देख लो ख़त्म इस जुमले पे सारी लन-तरानी कर गया चाँद के उजले बदन पर एक काला सा निशान ज़िंदगी के रोज़-ओ-शब की तर्जुमानी कर गया उस के अंदाज़-ए-तकल्लुम में ये कैसा सोज़ था पत्थरों के जिस्म को भी पानी पानी कर गया मस्लहत जाने उसे या समझें इंसानी हुक़ूक़ इक सितमगर बे-तवक़्क़ो मेहरबानी कर गया 'शहज़र' अपने जिस्म पर कम्बल लपेटे इक फ़क़ीर सारी दुनिया पर सुना है हुक्मरानी कर गया