ज़माना रश्क करे वो सुख़न के जौहर खींच क़लम का हक़ तो अदा कर कोई तो महशर खींच नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच ज़मीं असद की है मंज़र जो खींच हट कर खींच अजीब शक्ल है मक़्तल में क्या किया जाए हर एक शख़्स की ख़्वाहिश है तू ही ख़ंजर खींच ख़िज़ाँ तो दिल के दिखाने का इक बहाना है मज़ा तो जब है बहारों को अपने अंदर खींच ये कपकपाते हुए लब कोई इलाज नहीं ज़बाँ को खोल मोहब्बत का राज़ बाहर खींच गुनाहगार हूँ मुझ को है ए'तिराफ़ मगर मिरे ख़ुदा मिरे सर पर करम की चादर खींच तिरी ग़ज़ल ने तुझे सुर्ख़-रू किया 'शाहिद' सो तजरबों के समुंदर से यूँही गौहर खींच