ज़माने हो गए उमीद-वार हैं हम लोग सितम-कशान-ए-ग़म-ए-रोज़गार हैं हम लोग जुनून काम न आया कि सारे ख़्वाब-ओ-ख़याल उलझ के रह गए जिन से वो ख़ार हैं हम लोग जिसे तजस्सुस-ए-सब्र-ए-गुरेज़-पा कहिए इसी ख़लिश इसी ग़म का शिकार हैं हम लोग शराब-ए-तजरबा-ए-तल्ख़ पी चुके हैं हम सँभल गए हैं बहुत होशियार हैं हम लोग न जाने कब कहाँ ले जाए कब कहाँ रुक जाए ये रख़्श-ए-उम्र कि जिस पर सवार हैं हम लोग क़सम तसलसुल-ए-लैल-ओ-नहार की 'यकता' सितम-कशान-ए-ग़म-ए-इंतिज़ार हैं हम लोग