ज़माने जिस क़दर जी चाहे ले ले इम्तिहाँ हम से बदल जाएगा तो बदली न जाएगी ज़बाँ हम से बसाया है ग़मों ने जब से अपने ख़ाना-ए-दिल को मसर्रत रूठ कर चल दी ख़ुदा जाने कहाँ हम से सुनाने को तो हम भी दास्ताँ अपनी सुना देते करें क्या पूछने वाला तो हो कोई यहाँ हम से वो जब से मिल के बिछड़े हैं तो ये महसूस होता है किसी ने छीन ली जैसे हयात-ए-जाविदाँ हम से शब-ए-फ़ुर्क़त बसा लेते हैं वो दुनिया तसव्वुर की तिरी तस्वीर तक भी बात करती है जहाँ हम से क़रीब-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद फिर क़िस्मत ने भटकाया बिछड़ कर रह गए हम कारवाँ से कारवाँ हम से 'शरर' अपना क़फ़स इक दिन यक़ीं है गुलिस्ताँ होगा बहारें ख़ुद गले मिलने को आएँगी यहाँ हम से