ज़मीं कैसी थी कैसा आसमाँ था नहीं मालूम मुझ को मैं कहाँ था निशाँ मंज़िल का कोई कैसे ढूँडे कि ता-हद्द-ए-नज़र फैला धुआँ था वो मौसम लौट कर आयेगा इक दिन अभी तक मेरे दिल में ये गुमाँ था भड़क उठता था क्या रह रह के जाने कि मेरा दिल तो इक आतिश-फ़िशाँ था अचानक भूल कर पहुँचा जहाँ मैं वो सच-मुच मेरे सपनों का जहाँ था अदालत क्या मुझे इंसाफ़ देती कि झूटा जब गवाहों का बयाँ था हसीं थी 'राज' दुनिया की हर इक शय कि जब तक दिल का हर जज़्बा जवाँ था